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मेरी इस उन्मत्त दशा में,
कही ना दिखता उजियाला।
ज्योति बेच कर क्रय कर डाला,
दुखदायी यह अंधियाला ।
पड़ा हुआ है इधर सिसकता,
उधर बिलखती मधुबाला ।
अरे कौन यह मुझे प्यार से,
सम्बोधित करने वाला ।
40
कर आधीन इन्द्रियां अपनी,
जग सेवा करने वाला ।
अस्त्र शस्त्र का भय न मानता,
जग निर्भय जीने वाला ।
प्रेम, त्याग और सत्य, अहिंसा से,
जान मन हरने वाला ।
होता है वह योग्य सदा ही,
“मानव” कहलाने वाला ।
41
तेरी रसना के कौतुक ये,
उद्बोधन, भाषण माला ।
तृष्णा के अंधियाले में सब,
दिखा समान श्वेत-काला ।
भूल गया सुध बुध को मानव,
सैलानी भोला भाला ।
चारो ओर तीव्र ज्वाला में,
बढ़ अपना जीवन डाला ।
42
हर इच्छा की सघन ढाल पर,
दिखा रंग सुमन आला ।
जूही, गुलाब, चमेली, चंपा,
सोसन, नरगिस की हाला ।
‘चेतनता‘ से टूटा नाता,
छूटा कर से मधु प्याला ।
समझा था जिसको सुख अपना,
निकला वह कपटी काला ।
43
मानवता की चिता धधकती,
मुख से उगल रही ज्वाला ।
स्वयं स्वार्थ के अंगारो में,
जलता है जलने वाला ।
भस्म हो रहा मनुजवंश है,
है कोई क्या रखवाला ।
सर्वनाश हो गया बुद्धि का,
छोड़ी जब से मधुशाला ।
44
पंच तत्व का बना पींजरा,
मिट्टी से मिलने वाला ।
अस्थि, मांस, मज्जा के ऊपर,
डाल चर्म इसको ढाला ।
नित परिवर्तित महा प्रकृति ने,
रंग रंगीला कर डाला ।
भूरा, पीला, लाल, श्वेत है,
बना हुआ मानव काला ।
45
बीता शैशव, बाल्यकाल भी,
खोया यौवन मतवाला ।
नित नवीन आशा, अभिलाषा-
ने पूरा भारी जाला ।
काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह का,
घट पर पट डाले काला ।
भूल भुलैया माया में क्या,
ढूंढ रहा पथ मधुशाला ।
46
चला डूबने वैतरणी में,
जब जीवन का यह नाला ।
खो वैभव हो निर्धन, निर्बल,
समय नष्ट कर होश संभाला ।
टूटी तंत्र, मन पछतावा,
मिली न तलछट भी हाला ।
मंदिर मस्जिद भटक रहा क्या,
लिए हुए मुखड़ा काला ।
47
सकल रूढ़ियाँ तोड़ी मैंने,
परम्पराओं का जाला ।
परिवर्तन की युग-वीणा सुन,
जीवन को अभिनय ढाला ।
निर्विवाद, निर्बाध प्रगति का,
सत सुन्दर, लक्ष्य नहीं टाला।
मेरा मैं, मेरा ये साकी,
ये हाला, ये मधुशाला ।
कभी न अपना मुख करूँ,
‘मधुशाला‘ की ओर ।
अल्ल मस्त की ठोकरे,
मिले जो दूजी ठोर ।।
Please read Part 1, Part 2, Part 3, Part 4 and Part 5 of मेरा साकी मेरा हाला