19
मानवता की कला सृष्टि ने,
जड़ को देव बना डाला |
स्थूल साध्य के बिना किसी को,
मिली कहाँ कब मधुशाला |
लोह श्रृंखला बाँध सकी क्या,
सूक्ष्म और निर्गुण वाला |
एक से होता है अनेक ज्यूँ,
सूरा सुराही औ प्याला |
20
जाता है जब फूट कलेजे का,
कोई पक कर छाला |
टीस जलन चपको से मुझको,
सुख मिलता सबसे आला |
बह जाता मेरी आँखों से,
लोहित आंसू का नाला |
द्राक्षा में हाला बनती यह,
मध्यप है साकी बाला |
21
आँखों से सागर उमड़े है,
मन में धधक रही ज्वाला |
समऋतू का अनुभव करता हूँ,
पड़े द्वार साकी बाला |
सूरी और समय ने तोड़ी,
प्रेम प्रीती की कब माला |
व्याकुल रहे चकोर धरा पर,
शशि नभ का रहने वाला |
22
चंचल मन के दो रूपों ने,
अति ही विस्मय में डाला |
निष्फलता से प्रिय मिलान की,
हुआ मृतक तरुवर पाला |
अन्य और अलमस्त ध्यान में,
बानी विचित्र चित्रशाला |
सुमनो की है सघन वाटिका,
रंग भूमि साकी बाला |
23
पढ़कर वेद पुराण शास्त्र सब,
हुआ बुद्धि का दीवाला |
एक और है कीर्तन करता,
जय गोविन्द जय गोपाला |
दूजी और चल रहे हृदय में,
शर बल्लम बरछी भाला |
दिए हाथ गोमुख में ज्ञानी,
फेर रहा किसकी माला |
24
रंगे सियारो का होता है,
यहाँ अंत में मुख काला |
मुर्दो को जीवित करते ये,
मरता है जीने वाला |
मिली झूठ को कब आयु रे,
पड़ा सत्य से जब पाला |
सोच समझ कर चलना जग में,
अरे नहीं घरवा खाला |
25
मीठी मीठी सुन्दर सुन्दर,
मन मोहक रसना वाला |
घृणा द्वेष हिंसा असत्य का,
पूर रहा जग में जाला |
मौन शांत बैठा एकाकी,
अनजाना पीने वाला |
ऊंच नीच का भेद भस्म कर,
पिला रहा मधु का प्याला |
Please read Part 1, Part 2, Part 4, Part 5 and Part 6 of मेरा साकी मेरा हाला